अरस्तू का न्याय संबंधी विचार: वितरणात्मक, सुधारात्मक न्याय और आनुपातिक समानता का सिद्धांत (UPSC)

Written by:

⚖️ अरस्तू का न्याय संबंधी विचार: आनुपातिक समानता का सिद्धांत ⚖️

परिचय: न्याय की केंद्रीय अवधारणा

अरस्तू ने न्याय को अपने राजनीतिक और नैतिक दर्शन के केंद्र में रखा। उनका मानना था कि न्याय सद्गुणों में सर्वश्रेष्ठ (Virtue of Virtues) है, क्योंकि यह अकेले व्यक्ति के बजाय समाज के अन्य सदस्यों के साथ व्यवहार से संबंधित है। उनके न्याय संबंधी विचार मुख्य रूप से उनकी प्रसिद्ध कृति ‘निकोमैकियन एथिक्स’ (Nicomachean Ethics) और ‘पॉलिटिक्स’ में पाए जाते हैं।

न्याय के दो मुख्य रूप:

अरस्तू ने न्याय को दो व्यापक श्रेणियों में विभाजित किया:

  • साधारण/पूर्ण न्याय (Universal/General Justice): यह पूर्ण सदाचार या संपूर्ण नैतिक अच्छाई है, जो कानून के पालन से संबंधित है। यह **नैतिकता** के व्यापक क्षेत्र को समाहित करता है।
  • विशेष न्याय (Particular Justice): यह वह न्याय है जो समानता (Equality) और वितरण (Distribution) से संबंधित है। अरस्तू के राजनीतिक दर्शन में इसका विशेष महत्व है।

विशेष न्याय का विस्तृत वर्गीकरण (Detailed Classification of Particular Justice)

अरस्तू ने विशेष न्याय को आगे दो भागों में वर्गीकृत किया, जो सामाजिक-राजनीतिक और नागरिक जीवन में न्याय की स्थापना के दो मौलिक तरीके बताते हैं:

1. वितरणात्मक न्याय (Distributive Justice): आनुपातिक समानता

यह न्याय राज्य द्वारा अपने नागरिकों के बीच **पद, सम्मान, संपत्ति और अन्य लाभों के वितरण** से संबंधित है। यह न्याय अंकगणितीय (Arithmetical) नहीं, बल्कि ज्यामितीय (Geometrical) या आनुपातिक (Proportional) समानता पर आधारित है।

  • मूल सिद्धांत: **योग्यता के अनुसार वितरण (Distribution according to Merit)।** जो व्यक्ति राज्य के लिए अधिक योगदान करता है (जैसे सद्गुण, शिक्षा), उसे अधिक पुरस्कार मिलना चाहिए।
  • आनुपातिकता: यदि व्यक्ति A का योगदान व्यक्ति B से दोगुना है, तो A को B से दोगुना लाभ मिलना चाहिए।
    $$A_{reward} / B_{reward} = A_{merit} / B_{merit}$$
  • राजनीतिक संदर्भ: अरस्तू के कुलीनतंत्र (Aristocracy) में, योग्यता (मेरिट) सद्गुण (Virtue) पर आधारित होती है। उनके अनुसार, सबको समान चीज़ें नहीं मिलनी चाहिए, बल्कि **असमानों के साथ असमान** व्यवहार ही न्याय है।
2. सुधारात्मक न्याय (Corrective Justice): अंकगणितीय समानता

यह न्याय नागरिकों के बीच होने वाले हानि और लाभ के निपटारे से संबंधित है। इसका उद्देश्य प्रारंभिक स्थिति को बहाल करना है, और यह दोष (Wrong) या अपराध (Crime) के सुधार से संबंधित है।

  • मूल सिद्धांत: **हानि और लाभ की वापसी (Restoration of Loss and Gain)।** यहाँ योग्यता (Merit) अप्रासंगिक है। न्यायालय (Court) दोषी और पीड़ित के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए हस्तक्षेप करता है।
  • अंकगणितीय समानता: यह पूर्ण समानता (Absolute Equality) पर आधारित है। यदि A ने B को हानि पहुँचाई है, तो न्यायालय A से हानि लेकर B को देता है। यहाँ दोनों पक्ष (चाहे वे अमीर हों या गरीब, योग्य हों या अयोग्य) कानून की नजर में समान माने जाते हैं।
  • विभाजन: इसे आगे दो भागों में विभाजित किया जाता है: ऐच्छिक (Voluntary), जैसे अनुबंध (Contract), और अनैच्छिक (Involuntary), जैसे चोरी या हत्या।

निष्कर्ष: अरस्तू के न्याय की सीमाएँ और प्रासंगिकता

अरस्तू का न्याय का सिद्धांत एक विस्तृत और गहन संरचना प्रस्तुत करता है, लेकिन इसकी कुछ सीमाएँ भी हैं:

  • मानदंड की समस्या: वितरणात्मक न्याय में ‘योग्यता’ (Merit) का निर्धारण कौन करेगा? अरस्तू के लिए, यह सद्गुण था, लेकिन लोकतंत्र में यह भागीदारी है, और अल्पतंत्र में यह धन है। यह सिद्धांत स्वयं उस शासन प्रणाली पर निर्भर करता है जिसका यह समर्थन करता है।
  • अमानवीयता: यह सिद्धांत दासता और नागरिकता के अपवर्जन को सही ठहराता है, क्योंकि अरस्तू के अनुसार, दास सद्गुण/योग्यता में निम्न थे, इसलिए उन्हें कम वितरण प्राप्त होना चाहिए। यह आधुनिक समानतावादी विचारों के विरुद्ध है।
  • आधुनिक प्रासंगिकता: इसके बावजूद, न्याय को वितरणात्मक और सुधारात्मक (अर्थात सामाजिक और कानूनी) क्षेत्रों में विभाजित करने वाला अरस्तू का कार्य पहला व्यवस्थित वर्गीकरण है। आज के कल्याणकारी राज्यों (Welfare States) में **सामाजिक न्याय (Social Justice)** और **कानूनी सुधार** के सिद्धांतों का मूल आधार अरस्तू के इन विचारों में निहित है।

Leave a comment