इतिहास · शैक्षिक
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि — (1857 से पहले)
एक विस्तृत विवेचना — राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक कारण जो 1857 से पहले उभरे
अनुक्रमणिका
प्रस्तावना
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का जन्म एक क्षणिक घटना नहीं था, बल्कि अनेक दशकों में पली-बढ़ी चेतना, अनुभव और असंतोष का परिणाम था। 18वीं शताब्दी के अंत से लेकर 1857 तक राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक शोषण, सामाजिक बदलाव और बौद्धिक पुनरुत्थान—इन सब ने मिलकर भारतीयों में यह समझ विकसित की कि स्वतंत्रता एवं स्वशासन मात्र वांछनीय नहीं, बल्कि आवश्यक है। इस लेख में हम इन कारणों को विस्तृत और उदाहरण सहित समझने का प्रयास करेंगे ताकि छात्र केवल तथ्यों के बजाय कारणों और उनकी परस्परสัมพันธ์ को भी पकड़ सकें।
राजनीतिक पृष्ठभूमि
18वीं शताब्दी के मध्य में मुगल सत्ता का पतन और विभिन्न प्रांतीय साम्राज्यों का उदय—यह वह राजनीतिक परिदृश्य था जिसमें विदेशी शक्तियों के लिए हस्तक्षेप के द्वार खुले। अंग्रेज़ ईस्ट इंडिया कंपनी ने चालाकी से पहले व्यापारिक foothold बनाया और फिर सैन्य तथा कूटनीतिक माध्यमों से राजनीतिक नियंत्रण स्थापित किया। प्लासी (1757) और बक्सर (1764) जैसी निर्णायक लड़ाइयों ने कंपनी को प्रशासनिक अधिकारों की राह दिखाई।
सहायक संधि प्रणाली (Subsidiary Alliance)
लॉर्ड वेल्सल्य की यह रणनीति राज़कीय स्वायत्तता को धीरे-धीरे सीमित कर देती थी। रियासतों को अंग्रेज़ी सैनिक रखने पड़ते, जिनका पूरा खर्च स्वयं शासक को देना होता। साथ ही वे किसी भी विदेशी या स्थानीय शक्ति से संधि नहीं कर सकते थे। इस व्यवस्था के कारण रियासतें ब्रिटिश साम्राज्य की आर्थिक तथा सैन्य निर्भर बन गयीं। उदाहरणतः हैदराबाद और मैसूर जैसी रियासतें सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुईं।
लैप्स का सिद्धांत (Doctrine of Lapse)
लॉर्ड डलहौज़ी ने यह नीति लागू कर दी कि यदि किसी रियासत का कोई प्राकृतिक उत्तराधिकारी न हो, तो वह रियासत ब्रिटिश राज्य में विलय कर दी जाएगी। नीति के तहत कई रियासतें, जैसे सतारा और नागपुर, ब्रिटिश नियंत्रण में चली गयीं। झाँसी का मामला विशेष रूप से संवेदनशील था—सतीशासन के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने इसे अस्वीकार किया, परन्तु आरोप-प्रत्यारोप और जबरन कब्ज़े ने विद्रोह के बीज बो दिए।
इन दोनों नीतियों ने न केवल राजनीतिक संरचनाओं को बदला बल्कि राजा-दरबारों, सैन्य नैतिकता और स्थानीय प्रशासनिक व्यवस्था में ऐसी खटास पैदा की कि यह व्यापक असंतोष का कारण बना। रियासती वर्ग के हितों पर आक्रमण ने जनता के बीच भी अनिश्चितता और विरोध का वातावरण बना दिया।
आर्थिक पृष्ठभूमि
अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य व्यापारिक और औद्योगिक हितों की रक्षा था। भारतीय अर्थव्यवस्था को इस तरह से पुनर्गठित किया गया कि वह ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चा माल और खरीदार दोनों बने रहे। इसके नतीजे घातक रहे:
- कुटीर उद्योगों का पतन: भारतीय हथकरघा और हस्तशिल्प उद्योग ब्रिटिश मशीन निर्मित वस्तुओं के सापेक्ष प्रतिस्पर्धा नहीं कर सके। इससे लाखों कारीगर बेरोज़गार हुए।
- कृषि और कर व्यवस्था: स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement), रैयतवाड़ी और महालवाड़ी व्यवस्थाओं ने किसानों पर करों का भारी बोझ डाला—कई बार सूखे और बाजार अस्थिरता के कारण वही किसान कर्ज़ और भूखमरी का शिकार बन गए।
- बाजार का नया स्वरूप: भारत कच्चा माल (जैसे कपास, जूट) देने लगा और तैयार वस्तुएँ विदेशों से आयात होने लगीं—स्थानीय अर्थव्यवस्था के चक्कर बिगड़ गए।
आर्थिक शोषण ने न केवल गरीबी बढ़ाई बल्कि सामाजिक असमानता को भी तीव्र किया—जमींदारों और किसानों, कारीगरों और कारोबारियों का विरोध पल्लवित हुआ, जो बाद में राजनीतिक आंदोलनों के साथ जुड़ गया।
सांस्कृतिक व बौद्धिक पुनर्जागरण
अंग्रेजी शिक्षा नीतियों—विशेषतः मैकॉले के मिनट (1835) तथा वुड्स डिस्पैच (1854)—ने भारत में एक नई सोच का प्रसार किया। यह शिक्षा वर्गीय परिवर्तन लायी और ‘नया मध्यमवर्ग’ (educated middle class) तैयार हुआ जिसने आधुनिक राजनीतिक सिद्धांत, स्वतंत्रता और समानता जैसे विचारों को अपनाया।
वैचारिक रूप से रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द और अन्य दार्शनिक-आध्यात्मिक चिंतकों ने भारतीय संस्कृति की विशिष्टता और आत्मगौरव को रेखांकित किया। यह सांस्कृतिक आत्मविश्वास राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग के साथ जुड़ गया—लोगों ने सोचा कि यदि संस्कृति और अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण खो गया है तो राजनैतिक स्वतंत्रता अनिवार्य है।
1857 के तत्काल कारण (संदर्भ)
उपरोक्त दीर्घकालिक कारणों के साथ-साथ कुछ तात्कालिक घटनाएँ भी थीं जिन्होंने विद्रोह को प्रेरित किया—उदाहरणतः सैन्य असंतोष (सेना में भर्तियों की नीतियाँ, वेतन, पदोन्नति में भेद), ब्रिटिश सैन्य उपकरणों में परिवर्तन (गीली कारतूस—राइफल के ग्रीस/चर्म के कारण धार्मिक अपमान का संदेह), और लोक-नायकों के प्रति असंतोष (लोकप्रिय शासकों का अपमान या हटाया जाना) ने विद्रोह की आग में ईंधन का काम किया।
इन तात्कालिक घटनाओं को दीर्घकालिक आर्थिक-पॉलिटिकल-समाजिक परिस्थितियों का एक स्पार्क माना जा सकता है—यही कारण था कि विद्रोह के समय अनेक विभिन्न समाजिक वर्ग और क्षेत्र एक साथ खड़े हुए।
निष्कर्ष
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की जड़ें 1857 से बहुत पहले गहरी गयीं थीं। राजनीतिक नीतियाँ—विशेषकर सहायक संधि और लैप्स का सिद्धांत—ने रियासतों की स्वतंत्रता को कमजोर किया; आर्थिक नीतियों ने गाँव और कारीगरों की आर्थिक स्थिति गिराई; सामाजिक सुधारों और अंग्रेजी शिक्षा ने लोगों को नई सोच और अधिकारों की समझ दी। जब इन सभी तत्वों का टकराव हुआ तो 1857 का विद्रोह उभरा—जो बाद के संगठित, वैचारिक और राजनीतिक राष्ट्रवादी आंदोलनों के लिये मार्ग प्रशस्त करने वाला कदम था।
Tags: भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन, इतिहास, 1857, Subsidiary Alliance, Doctrine of Lapse
Leave a comment